हनुमान जी की कथा | Hanuman ji Story

एक बार गंगाजी के पावन तट पर विराजमान श्री सूत-जी महाराज से शौनकादी ऋषियों ने निवेदन किया- "हमे किसी श्रेष्ट व्रत का विधान बता दे. श्री सूत-जी महाराज बोले कि- ऋषिगण! अपने बहुत सुन्दर प्रश्न किया है. एक बार महर्षि वेदव्यास जी ने प्रथापुत्र युधिष्ठिर को गुप्त संपत्तियों के निधि स्वरुप तथा नष्ट राज्य की प्राप्ति करने वाला श्री हनुमान-जी का व्रत कहा था. उन्होंने बताया कि यह व्रत भगवान श्री कृष्ण ने द्रोपदी के लिए कहा था. द्रोपदी ने हनुमान व्रत का आरंभ किया और उनका डोरा गले में बांध लिया. किसी समाया अर्जुन ने उस सोरे को बंधा देखा तो बोले- "यह व्यर्थ का डोरा क्यों बांधा है ?" द्रोपदी ने मधुर शव्दों में कहा- "भगवान श्री कृष्ण के निर्देशानुसार मैं हनुमान व्रत करती हुआ. यह डोरा उसी का है. यह सुनकर अर्जुन क्रुद्ध हो गए और बोले- "अरे! वह बन्दर तो हमारे रथ की ध्वजा पर निरंतर लटका रहता है, वह तुम्हे क्या दे सकता है? श्री कृष्ण भी तो कपटी है, उन्होंने हसी में ऐसा कह दिया होगा. अब तुम इस डोरे को उतारकर फेक दो." द्रोपदी को अर्जुन की आज्ञा माननी पड़ी. उसने उस डोरे को गले से खोलकर उधन में सुरक्षित रखा दिया. हे युधिष्ठिर! हनुमान-जी के डोरे का परित्याग ही तुम्हारी वर्तमान विपित्त का कारण है. उसी के फलस्वरूप तुम्हारा प्राप्त ऐश्वर्य सहसा नष्ट हो गया. उस डोरे में तेरह ग्रंथियां है, इसलिए तुम्हे तेरह वर्ष का वनवास भोगना पड़ा. यदि उस डोरे का परित्याग न किया तो यह तेरह वर्ष सुखपूर्वक ही व्यतीत होते.

hanuman ji vrat katha

जब व्यास-जी यह चर्चा कर रहे थे तब द्रपादी भी वहां मौजूद थी. उसने स्वीकार किया कि- "भगवन श्री वेदव्यास का कथन सत्य है." व्यास-जी पुन: बोले- "हे युधिष्ठिर! यदि तुम इस व्रतकथा को सुनना चाहते हो तो ध्यानपूर्वक सुनो.-

जब श्री सीता-जी की खोज करते हुई भगवन रामचंद्र-जी अपने अनुज सहित ऋष्यमूक पर्वत पर पधारे तब उन्होंने सुग्रीव के साथ हनुमान-जी को भी देखा और तब हनुमान-जी ने उनके साथ मित्रता स्थापित की और बोले-" हे महाबोहो श्री रामचंद्र-जी मैं आपका कार्य करने को आतुर हूँ. आपका भक्त हुआ. पहले इन्द्र ने मेरी हनु पर व्रज से प्रहार किया था इसीलिए पृथ्वी पर मैं हनुमान नाम से विख्यात हुआ. उस समय मेरे पिता वायु, क्रोध में यह कहरे हुए अद्रश्य हो गए कि जिसने मेरे पुत्र को मारा है. उसे नष्ट कर दूगा. तदनन्तर ब्रह्मा देवताओ ने प्रकट होकर कहा- हे अंजनीपुत्र! तुम्हारे लिए इस वज्र का प्रहार व्यर्थ है और तुम अमित पराक्रमी होकर अपने व्रत के नायक होकर राम कार्य को करो. तुम्हारे इस व्रत के करने वाले की सभी कामनाए पूर्ण होगी. इस व्रत का अनुष्ठान पहले श्री राम चन्द्र-जी ने भी किया था. यह कहकर देवगण चले गए. अब हे नाथ! हे रामचंद्र जी! आप इस व्रत को अवश्य कीजिए."

हनुमान जी की बात का समर्थन आकाशवाणी ने भी किया. तब श्री राम ने हनुमान-जी से व्रत का विधान पूछा. तब हनुमान जी बोले- "जब मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में तेरह घटी त्रयोदशी व अभिजित नक्षत्र हो तब पीले डोरे में तेरह गत लगाकर उसे कलश में रखे और फिर 'ॐ नमो भगवते वायुनान्दनाय' मंत्र से मेरा आवाहन तथा पीले चन्दन, पीले पुष्प और अर्चानोचित सामग्री से मेरा पूजन करे. पूजन में ॐकार मंत्र द्वारा षोडशोपचार करने चाहिए. गेहूं के आटे के तेरह मालपुआ, तांबूल व दक्षिणा ब्राह्मण को दे तथा भोजन भी कराए. यह व्रत तेरह वर्ष पूर्ण होने तक नियमपूर्वक करे तथा तेरह वर्ष बाद विधिवत उद्यापन करे. "इस प्रकार हनुमान जी ने कहा. यह व्रत लक्ष्मण जी, विभीषण, सुग्रीव व श्री राम चन्द्र जी भी किया था. इस व्रत का साधन करने वाले साधक की शिर हनुमान जी सहायता करते है. हे युधिष्ठिर! इस मार्गशीर्ष मास में तुम भी इस व्रत को करो तो तुम्हे राज्य की पुन: प्राप्ति हो सकती है.

व्यास जी द्वारा व्रत की ऐसी महिमा सुनकर समुद्र तट पर रात्रि व्यतीत करने के पश्चात् दुसरे दिन युधिष्ठिर ने व्यास जी के समाखा ही द्रोपती के साथ यह व्रत, प्यास मिया घ्रात्ता हवि से होम तथा 'ॐ नमो भगवते वायुनान्दनाय' से श्री हनुमान जी का आवाहन पूजन किया. इसके फलस्वरूप युधिष्ठिर को उसी वर्ष राज्य की पुन: प्राप्ति हो गई. इसलिए हे ऋषि-गण! अप भी इस व्रत को करसे सफल मनोरथ को प्राप्त कर सकते है. तब उन ऋषियों ने भी इस श्री हनुमान व्रत को किया.
इस हनुमान-व्रत सबंधी कल्प का पथ करने, सुनने तथा सुनाने से सभी मनोरथ पूर्ण होते है.
!! जय श्री राम !!
वंदन हनुमत का करें, बाँधे वंदनवार।
राम राम हनुमान संग, बोलें बारंबार।।
!! जय श्री राम !!

शरणागति क्या है ?

शरणागति के 4 प्रकार है
1. जिह्वा से भगवान के नाम का जप- भगवान् के स्वरुप का चिंतन करते हुए उनके परम पावन नाम का नित्य निरंतर निष्काम भाव से परम श्रद्धापूर्वक जप करना तथा हर समय भगवान् की स्मृति रखना।
2. भगवान् की आज्ञाओं का पालन करना- श्रीमद्भगवद्गीता जैसे भगवान् के श्रीमुख के वचन, भगवत्प्राप्त महापुरुषों के वचन तथा महापुरुषों के आचरण के अनुसार कार्य करना।
3. सर्वस्व प्रभु के समर्पण कर देना-वास्तव मे तो सब कुछ है ही भगवान् का,क्योंकि न तो हम जन्म के समय कुछ साथ लाये और न जाते समय कुछ ले ही जायेंगे। भ्रम से जो अपनापन बना रखा है,उसे उठा देना है।
4 .भगवान् के प्रत्येक विधान मे परम प्रसन्न रहना-मनचाहा करते-करते तो बहुत-से जन्म व्यतीत कर दिए,अब तो ऐसा नही होना चाहिए।अब तो वही हो जो भगवान् चाहते है। भक्त भगवान् के विधानमात्र मे परम प्रसन्न रहता है फिर चाहे वह विधान मन,इंद्रिय और शरीर के प्रतिकूल हो या अनुकूल।
ॐ नमो नारायणायः

जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !

सत्य वचन में प्रीति करले,सत्य वचन प्रभु वास।
सत्य के साथ प्रभु चलते हैं, सत्य चले प्रभु साथ।।

गौ माता को बचाये और देवताओं का आशीर्वाद एवं कृपा प्राप्त करे !

साथ ही अपने प्रारब्ध ( भाग्य ) में पुण्य संचित करे ! यह एक ऐसा पुण्य है जिससे इहलोक में देवताओ से सुख समृद्धि मिलती है एवं परलोक में स्वर्ग !

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इस घोर कलियुग में वही परिवार सुख पायेगा !
गौमाता को पहली रोटी देकर हरिनाम गुण गायेगा !!
दया प्रेम सब जीवों पर करके सेवाभाव अपनायेगा !
गुरूजनों की आज्ञा मान माता पिता के चरण दबायेगा !!
गीता रामायण भागवत के द्वारा सोये मन को जगाता हूँ !
भूखों को भोजन पानी देकर पशु पंक्षियों को चुगाता हूँ !!
ईष्या,क्रोध ,आलस्य,वैमनष्यता ,बुराई का त्याग करे !
सेवा,प्रेम,करूणा,ममता,दया,क्षमा को अपनाये !!
जय गौमाता

गाय गोलोक की एक अमूल्य निधि है, जिसकी रचना भगवान ने मनुष्यों के कल्याणार्थ आशीर्वाद रूप से की है। अत: इस पृथ्वी पर गोमाता मनुष्यों के लिए भगवान का प्रसाद है। भगवान के प्रसादस्वरूप अमृतरूपी गोदुग्ध का पान कर मानव ही नहीं अपितु देवगण भी तृप्त होते हैं। इसीलिए गोदुग्ध को ‘अमृत’ कहा जाता है। गौएं विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती हैं और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत का खजाना हैं। सभी देवता गोमाता के अमृतरूपी गोदुग्ध का पान करने के लिए गोमाता के शरीर में सदैव निवास करते हैं। ऋग्वेद में गौ को ‘अदिति’ कहा गया है। ‘दिति’ नाम नाश का है और ‘अदिति’ अविनाशी अमृतत्व का नाम है। अत: गौ को ‘अदिति’ कहकर वेद ने अमृतत्व का प्रतीक बतलाया है।

बहुत कुछ सीखा और जाना
पर खाक सीखा और जाना
जब, उसी को न जाना,
जिसके पास है जाना

"एक माटी का दिया सारी रात अंधियारे से लड़ता है,
तू तो प्रभु का दिया है फिर किस बात से डरता है..."
हे मानव तू उठ और सागर (प्रभु ) में विलीन होने के लिए पुरुषार्थ कर

सर्वदेवमयी यज्ञेश्वरी गौमाता को नमन, जय गौमाता की

शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है ! चाहो तो इससे " विभूतिया " (अच्छाइयां / पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम " दुर्गति " ( बुराइया / पाप ) इत्यादि ! परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो ! प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करो ! शाकाहार अपनाओ , करुणा को चुनो ! जय गौमाता की

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