आपो (जल) देवता की स्तुति | Praises to the Jal Devta (god of water)
वेदों में ‘जल’ को देवता माना गया है। किन्तु उसे जल न कहकर ‘आपः’ या ‘आपो देवता’ कहा गया है।
ऋगवेद के सातवें मण्डल के ४७ वे सूक्त से,,,
मन्त्र
(२४५) अम्बयो यन्त्यध्वभिर्जामयो अध्वरीयताम्।।
पृञ्चतीर्मधुना पयः।।१६।।
यज्ञ की इच्छा करने वालों के सहायक मधुर रस जल-प्रवाह, माताओं के सदृश पुष्टिप्रद हैं। वे दुग्ध को पुष्ट करते हुए यज्ञ-मार्ग से गमन करते हैं।
(२४६) अमूया उप सूर्ये याभिर्वा सूर्यः सह।।
ता नो हिन्वन्त्वध्वरम्।।१७।।
जो ये जल सूर्य में (सू्र्य किरणों में) समाहित हैं। अथवा जिन (जलों) के साथ सूर्य का सान्नध्य है, ऐसे ये पवित्र जल हमारे ‘यज्ञ’ को उपलब्ध हों।
(२४७) अपो देवीरूप ह्वये यत्र गावः पिबन्ति नः।।
सिन्धुभ्यः कर्त्व हविः।।१८।।
हमारी गायें जिस जल का सेवन करती हैं, ऐसे जलों का हम स्तुतिगान करते हैं। अन्तरिक्ष एवं भूमि पर प्रवहमान उन जलों के लिए हम हवि अर्पित करते हैं।
(२४८) अप्स्व अन्तरमृतमप्सु भेषजमपामुत प्रशस्तये।।
देवा भवत वाजिनः।।१९।।
जल में अमृतोपम गुण है। जल में औषधीय गुण है। हे देवो! ऐसे जल की प्रशंसा से आप उत्साह प्राप्त करें।
(२४९) अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा।।
अग्निं च विश्वशम्भुवमापश्च विश्वभेषजीः।।२०।।
मुझ (मंत्रदृष्टा ऋषि) से सोमदेव ने कहा है कि जल में (जलसमूह में) सभी औषधियाँ समाहित हैं। जल में ही सर्व सुख प्रदायक अग्नि तत्व समाहित है। सभी औषधियाँ जलों से ही प्राप्त होती हैं।
(२५०) आपः पृणीत भेषजं वरुथं तन्वे मम।।
ज्योक् च सूर्यं दृशे ।।२१।।
हे जल समूह! जीवनरक्षक औषधियों को हमारे शरीर में स्थित करें, जिससे हम निरोग होकर चिरकाल तक सूर्यदेव का दर्शन करते रहें।।२१।।
(२५१) इदमापः प्र वहत यत्किं च दुरितं मयि।।
यद्वाहमभिदु द्रोह यद्वा शेप उतानृतम्।।२२।।
हे जलदेवों! हम (याजकों) ने अज्ञानतावशं जो दुष्कृत्य किये हों, जानबूझकर किसी से द्रोह किया हो, सत्पुरुषों पर आक्रोश किया हो या असत्य आचरण किया हो तथा इस प्रकार के हमारे जो भी दोष हों, उन सबको बहाकर दूर करें।।२२।।
(२५२) आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि।।
पयस्वानग्न आ गहि तंमा सं सृज वर्चसा ।।२३।।
आज हमने जल में प्रविष्ट होकर अवमृथ स्नान किया है। इस प्रकार जल में प्रवेश करके हम रस से आप्लावित हुए हैं। हे पयस्वान्! हे अग्निदेव! आप हमें वर्चस्वी बनाएँ। हम आपका स्वागत करते हैं।
सूक्त ४७‘आपो देवता’
ऋग्वेद के सातवें मण्डल के ४७ वें सूक्त के मन्त्रदृष्टा ऋषि ‘वरिष्ठ मैत्रावरुणि’ है। देवता ‘आपः’ हैं तथा छन्द ‘त्रिष्ठुप्’ है।
मन्त्र
आपो यं वः प्रथमं देवयन्त
इन्द्रानमूर्मिमकृण्वतेळः।।
तं वो वयं शुचिमरिप्रमद्य घृतेप्रुषं मधुमन्तं वनेम।।१।।
हे जलदेव! देवत्व के इच्छुकों के द्वारा इन्द्रदेव के पीने के लिए भूमि पर प्रवाहित शुद्ध जल को मिलाकर सोमरस बनाया गया है। शुद्ध पापरहित, मधुर रसयुक्त सोम का हम भी पान करेंगे।
तमूर्मिमापो मधुमत्तमं वोSपां नपादवत्वा शुहेमा।।
यस्मिन्निन्द्रो वसुभिर्मादयाते तमश्याम देवयन्तो वो अद्य।।२।।
हे जलदेवता! आपका मधुर प्रवाह सोमरस में मिला है। उसे शीघ्रगामी अग्निदेव सुरक्षित रखें। उसी सोम के पान से वसुओं के साथ इन्द्रदेव मत्त होते हैं। हम देवत्त्व की इच्छावाले आज उसे प्राप्त करेंगे।
शतपवित्राः स्वधया मदन्तीर्देवीर्देवानामपि यन्ति पाथः।।
ता इन्द्रस्य न मिनन्तिं व्रतानि सिन्धुभ्यो हण्यं घृतवज्जुहोत।।३।।
ये जलदेवता हर प्रकार से पवित्र करके तृप्ति सहित प्राणियों में प्रसन्नता भरते हैं। वे जलदेव यज्ञ में पधारते हैं, परन्तु विघ्न नहीं डालते। इसलिए नदियों के निरंतर प्रवाह के लिए यज्ञ करते रहें।
याः सूर्यो रश्मिभिराततान याम्य इन्द्री अरदद् गातुभूर्मिम्।।
तो सिन्धवो वरिवो धातना नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।।४।।
जिस जल को सूर्यदेव अपनी रश्मियों के द्वारा बढ़ाते हैं एवं इन्द्रदेव के द्वारा जिन्हें प्रवाहित होने का मार्ग दिया गया है, हे सिन्धो (जल प्रवाहों)! आप उन जलधाराओं से हमें धन-धान्य से परिपूर्ण करें तथा कल्याणप्रद साधनों से हमारी रक्षा करें।
सूक्त ४९ ‘आपो देवता’
ऋग्वेद के सातवें मण्डल के सूक्त ४९ के मन्त्रदृष्टा ऋषि ‘वसिष्ठ मैत्रावरुणि’ है। देवता ‘आपः’ है तथा छन्द ‘त्रिष्टुप्’ है।
मन्त्र
समुद्रज्येष्ठाः सलिलस्य मध्यात्पुनाना यन्त्यनिविशमानाः।।
इन्द्रो या वज्री वृषभोरराद ता आपो देवीरिह मामवन्तु।।१।।
समुद्र जिनमें ज्येष्ठ है, वे जल प्रवाह सदा अन्तरिक्ष से आने वाले हैं। इन्द्रदेव ने जिनका मार्ग प्रशस्त किया है, वे जलदेव यहाँ हमारी रक्षा करें।
या आपो दिव्या उत वा स्त्रवन्ति रवनित्रिमा उत वा याः स्वयञ्जाः।।
समुद्रार्था याः शुचयः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु।।२।।
जो दिव्य जल आकाश से (वृष्टि के द्वारा) प्राप्त होते हैं, जो नदियों में सदा गमनशील हैं, खोदकर जो कुएँ आदि से निकाले जाते हैं, और जो स्वयं स्त्रोतों के द्वारा प्रवाहित होकर पवित्रता बिखेरते हुए समुद्र की ओर जाते हैं, वे दिव्यतायुक्त पवित्र जल हमारी रक्षा करें।
यासां राजा वरुणो याति मध्ये सत्यानृते अवपश्यञ्जनानाम्।।
मधुश्चुतः शुचयो याः पावकास्ता आपो देवीरिह मामवन्तु।।३।।
सर्वत्र व्याप्त होकर सत्य और मिथ्या के साक्षी वरुणदेव जिनके स्वामी हैं, वे ही रसयुक्ता, दीप्तिमती, शोधिका जल देवियाँ हमारी रक्षा करें।
यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वेदेवा या सूर्जं मदन्ति।।
वैश्वानरो यास्वाग्निः प्रविष्टस्ता आपो दवीरिह मामवन्तु।।४।।
राजा वरुण औऱ सोम जिस जल में निवास करते हैं। जिसमें विद्यामान सभी देवगण अन्न से आनन्दित होते हैं, विश्व व्यवस्थापक अग्निदेव जिसमें निवास करते हैं, वे दिव्य जलदेव हमारी रक्षा करें।
विशेष,,,,, ऋषि एवं मनीषियों ने षोडशोपचार पद्धति की पूजा में आपो देवता को बहुत महत्व दिया गया है l आप भी इस स्तुति को अपनी प्रार्थनाओं में स्थान देकर दिव्य जल की कामना करे | यही जल आपको स्वास्थ्य तो प्रदान करेगा ही साथ ही सुविचारो का निर्माण भी करेगा |
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