निद्रा देवी | Nidra Devi

nidra devi

उमा अवधबासी नर नारि कृतारथ रूप।
ब्रह्म सच्चिदानंद घन रघुनायक जहँ भूप ॥॥
भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! अयोध्या में रहने वाले पुरुष और स्त्री सभी कृतार्थस्वरूप हैं, जहाँ स्वयं सच्चिदानंद ब्रह्म श्री रघुनाथजी राजा हैं॥
एक बार श्रीराम को नगर के बाहर किसी स्त्री का रोदन सुनायी पड़ा, उसे सुनकर श्री राम जी आश्चर्य में पड़ गये कि यह क्या है? तब तक लक्ष्मण भी आ पहुंचे । राम ने उन्हें सब वृत्तान्त सुनाया । लक्ष्मण ने उसी क्षण दूतों को उस स्थान पर भेजा कि जहाँ पर कीर्तन हो रहा था। लक्ष्मण के दूतों ने वहाँ पहुंचकर राम के दूतों से कहा कि तुम लोग शीघ्र जाओ, राम जी तुम्हें बुला रहे हैं । उन सबने कहा- - कीर्तन को अधूरा छोड़कर हम कैसे जायँ?
तब किसी एक ने कहा-- सेवकों का धर्म है, स्वामी की आज्ञा का तुरंत पालन करे, अवज्ञा से हम सब पाप के भागी होंगे। किसी ने कहा- - यह राम कीर्तन जो स्वयं ही सब पापों का नाशक है, अब इसे त्याग कर कैसे जायँ? कुछ ने कहा- - इससे तो स्वामी को प्रसन्नता ही होगी।

तब लक्ष्मण के दूतों ने राम के पास जाकर उन सब का वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर राम कुछ कुपित तो अवश्य हुए किन्तु उन्होंने कहा, अब इसके लिये तो मैं अपने सेवकों को दण्ड नहीं दे सकता, तथापि यह उचित नहीं है कि मैं उन्हें शिक्षा भी न दूं।
यह कहते हुए राम को फिर वही नगर के बाहर वाला रोदन सुनाई पड़ा। उन्होंने विमान को आज्ञा दी कि तुम वहाँ चलो जहाँ नगर के बाहर वह स्त्री रोदन कर रही है । विमान वहाँ से उड़कर नगर के बाहर सरयू तट पर आया। राम ने देखा कि अंजन के समान काली-कलूटी एक स्त्री वहाँ विलाप कर रही है । उसे देखकर राम ने पूछा- तुम कौन हो और यहाँ किस कारण रोदन कर रही हो? इस पर उस स्त्री ने कहा-- मैं यहाँ बैठी अतिकाल से रो रही हूँ । नहीं ज्ञात कि आज मेरा कौन सा पुण्य उदय हुआ कि आपको मेरा रोदन सुनाई पड़ा।
हे प्रभो! जब पूर्व में ब्रह्मा ने मुझे बनाकर मेरा नाम निद्रा रखा तो कुंभकर्ण के दीर्घ सुख के लिए उसमें ही उन्होंने मुझे बसा दिया था। तब जिस समय मैं उसमें स्थित थी, हे राम ! उसी समय आपने संग्राम में उसे मार दिया। इससे मैं अपने उस स्थान से चलकर ब्रह्मा के पास गई । तब हे राम! उन्होंने मुझको आपके पास भेज दिया। उसी समय से मैं आपकी इस पुरी में आ गई ।परन्तु आपके सीमारक्षकों के भय से इस नगरी में प्रवेश न पा सकी। इसीलिए सरयू के तट पर बैठी विलाप कर रही हूँ ।
हे राम! अब आप कृपा कर मेरे रहने के लिए कोई स्थान बतलावें कि जहाँ मैं सुख से निवास कर सकूँ।उसकी इस बात को सुन तथा पूर्व की सब बातों का स्मरण कर राम को क्रोध सा आ गया।
तब वह निद्रा से बोले-- सुनो, तुम्हारे रहने के लिए मैं स्थान बतलाता हूं । जितने भी पापी मनुष्य हैं, जब मेरा कीर्तन सुनने को जाया करें अथवा जब वे पुराण कथा का श्रवण करने को बैठें अथवा वेद पाठ, पूजन, जप और ध्यान आदि शुभ कर्म परायण हों, तब तुम उनमें अपना स्थान कर लो।

इस प्रकार जितने भी हीन प्रकृति के हों, चाहे वे देवता या मनुष्य कोई भी क्यों न हों, जड़, बालक, गर्भिणी स्त्री, व्रतोत्तर भोजन करने वाले, विद्यार्थी और श्रमिक मनुष्यों में भी तुम्हारा वास होवे। फिर जो लोग अधिक जागरण करते हों, उन लोगों में भी मैं तुम्हारा स्थान करता हूं। मैं तुम्हें यह वर देता हूँ कि तुम इन सब पर अपना मोहजाल विस्तीर्ण करो।
राम की यह बात सुनकर निद्रा प्रसन्न हो गई और उसने भगवान को प्रणाम किया। राम जी भी अपनी नगरी में लौट आये ।रात भर विश्राम किये। तब से निद्रा भी ऊपर कथित स्थान में विश्राम करने लगी । यही कारण है कि जब कोई पापी जन पुण्य-कर्म करने लगता है, तब उस पर निद्रा आक्रमण कर देती है। सहस्त्रों में कोई एक ही पुण्यात्मा होता है जो निर्विघ्न शुभ-कार्य कर पाता है ।
अब मैं सीता के यश से पूर्ण तुम्हें एक कथा सुनाता हूँ । कुम्भकर्ण के पुत्र निकुम्भ की स्त्री उस समय गर्भिणी थी जब रामचन्द्र जी ने लंका पर आक्रमण किया था। तब वह संतान जनन के लिए किसी अन्य द्वीप में रहने वाले अपने पिता के घर चली गई थी। जब राम से युद्ध करने पर रावण का समूलोच्छेद हो गया, तब उसके गर्भ से पौन्ड्र्क नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
उस समय श्रोणनदी के तट पर मायापुरी नाम की एक नगरी थी जिसमें एक और रावण रहता था जिसके सौ सिर और दो भुजाएँ थीं। पौन्ड्रक ने उस रावण की सहायता से विभीषण पर आक्रमण कर युद्ध में पराजित कर दिया और सौ मुखा रावण उस पौन्ड्रक के साथ जाकर स्वयं ही वहाँ का राजा बन बैठा। विभीषण ने आकर सब समाचार राम को सुनाया।
मित्र की दुखद कहानी सुनकर सीता सहित रामचन्द्र जी विभीषण के साथ लंका को चल दिये और वहाँ जाकर उन्होंने उस सौ सिर वाले रावण को मारकर फिर विभीषण को लंका के सिंहासन पर बैठाया और अयोध्या लौट आये।

*ज्ञान के बाद यदि अहंकार का जन्म होता है, तो वो ज्ञान जहर है।*
*किन्तु......*
*ज्ञान के बाद यदि नम्रता का जन्म होता है, तो यही ज्ञान अमृत होता है॥*
जय प्रथम पूज्य श्रीगणेश ज़ी
*सत्य वह दौलत है जिसे, पहले खर्च करो और जन्म जन्मांतर /जिंदगी भर आनंद पाओ,*
*झुठ वह कर्ज है जिससे क्षणिक सुख पाओ पर जन्म जन्मांतर तक चुकाते रहो।*
जय श्री सीताराम जय बजरंग बली

शरणागति क्या है ?

शरणागति के 4 प्रकार है
1. जिह्वा से भगवान के नाम का जप- भगवान् के स्वरुप का चिंतन करते हुए उनके परम पावन नाम का नित्य निरंतर निष्काम भाव से परम श्रद्धापूर्वक जप करना तथा हर समय भगवान् की स्मृति रखना।
2. भगवान् की आज्ञाओं का पालन करना- श्रीमद्भगवद्गीता जैसे भगवान् के श्रीमुख के वचन, भगवत्प्राप्त महापुरुषों के वचन तथा महापुरुषों के आचरण के अनुसार कार्य करना।
3. सर्वस्व प्रभु के समर्पण कर देना-वास्तव मे तो सब कुछ है ही भगवान् का,क्योंकि न तो हम जन्म के समय कुछ साथ लाये और न जाते समय कुछ ले ही जायेंगे। भ्रम से जो अपनापन बना रखा है,उसे उठा देना है।
4 .भगवान् के प्रत्येक विधान मे परम प्रसन्न रहना-मनचाहा करते-करते तो बहुत-से जन्म व्यतीत कर दिए,अब तो ऐसा नही होना चाहिए।अब तो वही हो जो भगवान् चाहते है। भक्त भगवान् के विधानमात्र मे परम प्रसन्न रहता है फिर चाहे वह विधान मन,इंद्रिय और शरीर के प्रतिकूल हो या अनुकूल।
ॐ नमो नारायणायः

जीवन का सत्य आत्मिक कल्याण है ना की भौतिक सुख !

सत्य वचन में प्रीति करले,सत्य वचन प्रभु वास।
सत्य के साथ प्रभु चलते हैं, सत्य चले प्रभु साथ।।

गौ माता को बचाये और देवताओं का आशीर्वाद एवं कृपा प्राप्त करे !

साथ ही अपने प्रारब्ध ( भाग्य ) में पुण्य संचित करे ! यह एक ऐसा पुण्य है जिससे इहलोक में देवताओ से सुख समृद्धि मिलती है एवं परलोक में स्वर्ग !

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इस घोर कलियुग में वही परिवार सुख पायेगा !
गौमाता को पहली रोटी देकर हरिनाम गुण गायेगा !!
दया प्रेम सब जीवों पर करके सेवाभाव अपनायेगा !
गुरूजनों की आज्ञा मान माता पिता के चरण दबायेगा !!
गीता रामायण भागवत के द्वारा सोये मन को जगाता हूँ !
भूखों को भोजन पानी देकर पशु पंक्षियों को चुगाता हूँ !!
ईष्या,क्रोध ,आलस्य,वैमनष्यता ,बुराई का त्याग करे !
सेवा,प्रेम,करूणा,ममता,दया,क्षमा को अपनाये !!
जय गौमाता

गाय गोलोक की एक अमूल्य निधि है, जिसकी रचना भगवान ने मनुष्यों के कल्याणार्थ आशीर्वाद रूप से की है। अत: इस पृथ्वी पर गोमाता मनुष्यों के लिए भगवान का प्रसाद है। भगवान के प्रसादस्वरूप अमृतरूपी गोदुग्ध का पान कर मानव ही नहीं अपितु देवगण भी तृप्त होते हैं। इसीलिए गोदुग्ध को ‘अमृत’ कहा जाता है। गौएं विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती हैं और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत का खजाना हैं। सभी देवता गोमाता के अमृतरूपी गोदुग्ध का पान करने के लिए गोमाता के शरीर में सदैव निवास करते हैं। ऋग्वेद में गौ को ‘अदिति’ कहा गया है। ‘दिति’ नाम नाश का है और ‘अदिति’ अविनाशी अमृतत्व का नाम है। अत: गौ को ‘अदिति’ कहकर वेद ने अमृतत्व का प्रतीक बतलाया है।

बहुत कुछ सीखा और जाना
पर खाक सीखा और जाना
जब, उसी को न जाना,
जिसके पास है जाना

"एक माटी का दिया सारी रात अंधियारे से लड़ता है,
तू तो प्रभु का दिया है फिर किस बात से डरता है..."
हे मानव तू उठ और सागर (प्रभु ) में विलीन होने के लिए पुरुषार्थ कर

सर्वदेवमयी यज्ञेश्वरी गौमाता को नमन, जय गौमाता की

शरीर परमात्मा का दिया हुआ उपहार है ! चाहो तो इससे " विभूतिया " (अच्छाइयां / पुण्य इत्यादि ) अर्जित करलो चाहे घोरतम " दुर्गति " ( बुराइया / पाप ) इत्यादि ! परोपकारी बनो एवं प्रभु का सानिध्य प्राप्त करो ! प्रभु हर जीव में चेतना रूप में विद्यमान है अतः प्राणियों से प्रेम करो ! शाकाहार अपनाओ , करुणा को चुनो ! जय गौमाता की

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