यमलोक में मानव | Yamlok me manav (एक रोचक कथा)

ek- rochak katha

एक हाथी मरकर यमपुरी पहुँचा। यमराज ने हाथी से पूछाः "इतना बड़ा शरीर और फिर भी कंगाल क्यों ? कुछ कमाई नहीं की तूने ?"
हाथी बोलाः "मैं क्या कमाई करता ?
मनुष्य तो मुझसे भी बड़ा है फिर भी वह हमेशा कंगाल रहता है यानि उसकी वासना , लालच एवं तृष्णा पूरी ही नहीं होती है !
यमराज ने कहा --- "मनुष्य बड़ा कैसे है ? वह तो तेरे एक पैर के आगे भी छोटा सा दिखाई पड़ता है। तू अगर अपनी पूँछ का एक झटका मारे तो मनुष्य चार गुलाट खा जाए। तेरी सूंड दस-दस मनुष्यों को घुमा कर गिरा सकती है।
मनुष्य से बड़ा और मजबूत तो घोड़ा होता है, ऊँट होता है और उन सबसे बड़ा तू है।"

हाथीः "महाराज ! आपके पास तो मुर्दे मनुष्य आते हैं। किसी जिन्दे मनुष्य से पाला पड़े तो पता चले कि मनुष्य कैसा होता है।"
यमराज ने कहाः "ठीक है। मैं अभी जिन्दा मनुष्य बुलवाकर देख लूँगा।"
यमराज ने यमदूतों को आदेश दिया कि अवैधानिक तरीके से किसी को उठाकर ले आना।

यमदूत चले खोज में मनुष्यलोक पर। उन्होंने देखा कि एक युवक रात्रि के समय अपने खलिहान में खटिया बिछाकर सोया था। यमदूतों ने खटिया को अपने संकल्प से ऊपर उठा लिया और बिना प्राण निकाले उस युवक को सशरीर ही यमपुरी की ओर ले चले।
ऊपर की ठंडी हवाओं से उस किसान युवक की नींद खुल गई। वातावरण शांत था अतः चित्त एकाग्र था। उसे यमदूत दिखे। उसने कथा में सुना था कि यमदूत इस प्रकार के होते हैं।
चारपाई के साथ ही मुझे ले जा रहे हैं।
उस युवक ने धीरे से अपनी जेब में हाथ डाला और कागज पर कुछ लिखकर वह चुपके से फिर लेट गया। चारपाई सहित युवक यमपुरी में पहुंचा ! उस युवक ने किसी दूसरे यमदूत को यमराज के नाम लिखी वह चिट्ठी देकर यमराज के पास भिजवाया।
पत्र में लिखा थाः "पत्रवाहक मनुष्य को मैं यमपुरी का सर्वेसर्वा बनाता हूँ।" नीचे आदि नारायण भगवान विष्णु का नाम लिखा था।
यमराज चिट्ठी पढ़कर सकते में आ गये लेकिन भगवान नारायण का आदेश था इसलिए उसके परिपालन में युवक को सर्वेसर्वा के पद पर तिलक कर दिया गया। अब जो भी निर्णय हो वे सब इस सर्वेसर्वा की आज्ञा से ही हो सकते हैं।
अब कोई पापी आता तो यमदूत पूछतेः "महाराज ! इसे किस नरक में भेजें ?"
वह कहता "वैकुण्ठ भेज दो।" और वह वैकुण्ठ भेज दिया जाता।
किसी भी प्रकार का पापी आता तो वह सर्वेसर्वा उसे न अस्सी नरक में भेजता न रौरव नरक में भेजता न कुंभीपाक नरक में, वरन् सबको वैकुण्ठ में भेज देता था। थोड़े ही दिनों में वैकुण्ठ भर गया।
उधर भगवान नारायण सोचने लगेः "क्या पृथ्वी पर कोई ऐसे पहुँचे हुए आत्म साक्षात्कारी महापुरूष पहुँच गये हैं कि जिनका सत्संग सुनकर, दर्शन करके आदमी निष्पाप हो गये और सब के सब वैकुण्ठ चले आ रहे हैं। अगर कोई ब्रह्मज्ञानी वहाँ हो तो मेरा और उसका तो सीधा संबंध होता है।"

ऐसे ही अगर कोई ब्रह्मवेत्ता होता है तो उसकी और भगवान नारायण की सीधी मन से मन की मंत्रणा होती है। प्रभु ब्रह्मज्ञानियों / ब्रह्मवेत्ताओं के हृदय में वास करते है और उनके सारे विचार एवं आचरण को जानते है जिसका उन्हें पल पल ज्ञान रहता है !
मन मेरो पंछी भयो, उड़न लाग्यो आकाश।
स्वर्गलोक खाली पड़यो, साहेब संतन के पास।।

प्रभु जी बसे साध की रसना.....
वह परमात्मा साधु की जिह्वा पर निवास करता है। विष्णु जी सोचते हैं- "ऐसा कोई साधु मैंने नहीं भेजा फिर ये सबके सब लोग वैकुण्ठ में कैसे आ गये ? क्या बात है ?"
भगवान ने यमपुरी में पुछवाया।
यमराज ने कहलवा भेजा किः "भगवन् ! वैकुण्ठ किसी ब्रह्मज्ञानी संत की कृपा से नहीं, आपके द्वारा भेजे गये नये सर्वेसर्वा मानव के आदेश से भरा जा रहा है।"
भगवान सोचते हैं- "ऐसा तो मैंने कोई आदमी भेजा नहीं। चलो मैं स्वयं देखता हूँ।"
भगवान यमपुरी में आये तो यमराज ने उठकर उनकी स्तुति की। भगवान पूछते हैं- "कहाँ है वह सर्वेसर्वा ?"
यमराजः "वह सामने के सिंहासन पर बैठा है, जिसे आपने ही भेजा है।"
भगवान चौंकते हैं- "मैंने तो नहीं भेजा।"

यमराज ने वह आदेशपत्र दिखाया जिसमें हस्ताक्षर के स्थान में लिखा था 'आदि नारायण भगवान विष्णु।'
पत्र देखकर भगवान सोचते हैं- "नाम तो मेरा ही लिखा है लेकिन पत्र मैंने नहीं लिखा है।
उन्होंने सर्वेसर्वा बने उस मनुष्य को बुलवाया और पूछाः "भाई ! मैंने कब हस्ताक्षर कर तुझे यहाँ भेजा
? तूने मेरे ही नाम के झूठे हस्ताक्षर कर दिये ?"
वह किसान युवक बोला "भगवान ! ये हाथ-पैर सब आपकी शक्ति से ही चलते हैं। प्राणीमात्र के हृदय में आप ही हैं ऐसा आपका वचन है। अतः जो कुछ मैंने किया है वह आप ही की सत्ता से हुआ है और आपने ही किया। हाथ क्या करे ?
उमा दारूजोषित की नाईं। सब ही नचावत राम गोसांई।
ऐसा रामायण में आपने ही लिखवाया है प्रभु ! और गीता में भी आपने ही कहा हैः
इसके बाद भी अगर आपने हस्ताक्षर नहीं करवाये तो मैं अपनी बात वापस लेता हूँ लेकिन भगवान ! अब ध्यान रखना कि अब रामायण और गीता को कोई भी नहीं मानेगा।
'करन करावनहार स्वामी। सकल घटों के अन्तर्यामी।। '
इस पवित्र धर्म शास्त्र को भी कोई नहीं मानेगा। आप तो कहते हैं 'मैं सबका प्रेरक हूँ' तो मुझे प्रेरणा करने वाले भी तो आप ही हुए इसलिए मैंने आपका नाम लिख दिया।
यदि आप मुझे झूठा साबित करते हैं तो आपके शास्त्र भी झूठे हो जाएँगे, फिर लोगों को भक्ति कैसे मिलेगी ? संसार नरक बन जाएगा।"
भगवान कहते हैं- "बात तो सत्य है रे जिन्दा मनुष्य ! चलो भाई ! ये हस्ताक्षर करने की सत्ता मेरी है इसलिए मेरा नाम लिख दिया लेकिन तूने सारे पापी-अपराधियों को वैकुण्ठ में क्यों भेज दिया ?
जिसका जैसा पाप है, वैसी सजा देनी थी ताकि न्याय हो।

युवकः "भगवान ! मैं सजा देने के लिए नियुक्त नहीं हुआ हूँ। मैं तो अवैधानिक रूप से लाया गया हूँ। मेरी कुर्सी चार दिन की है, पता नहीं कब चली जाए, इसलिए जितने अधिक भलाई के काम हो सके मैंने कर डाले।

मैंने इन सबका बेड़ा पार किया तभी तो आप मेरे पास आ गये। फिर क्यों न मैं ऐसा काम करूँ ? अगर मैं वैकुण्ठ न भेजता तो आप भी नहीं आने वाले थे और आपके दर्शन भी नहीं होते। मैंने अपनी भलाई का पुण्य फल तो पा लिया।"
भगवान बोलेः "अच्छा भाई ! उनको वैकुण्ठ भेज दिया तो कोई बात नहीं। तूने पुण्य भी कमा लिया और मेरे दर्शन भी कर लिए। अब मैं उन्हें वापस नरक भेजता हूँ।"
युवक बोलाः "भगवन् ! आप उन्हें वापस नरक में भेजोगे तो आपके दर्शन का फल क्या ? आपके दर्शन की महिमा कैसे ? क्या आपके वैकुण्ठ में आने के बाद फिर नरक में.... ?"
भगवानः "ठीक है। मैं उन्हें नरक में नहीं भेजता हूँ लेकिन तू अब चला जा पृथ्वी पर।"
युवकः "हे प्रभु ! मैंने इतने लोगों को तारा और आपके दर्शन करने के बाद भी मुझे संसार की मजदूरी करनी पड़े तो फिर आपके दर्शन एवं सत्कर्म की महिमा पर कलंक लग जाएगा।"
भगवान सोचते हैं- यह तो बड़े वकील का भी बाप है ! उन्होंने युवक से कहाः "अच्छा भाई ! तू पृथ्वी पर जाना नहीं चाहता है तो न सही लेकिन यह पद तो अब छोड़ ! चल मेरे साथ वैकुण्ठ में।"
युवकः "मैं अकेला नहीं आऊँगा। जिस हाथी के निमित्त से मैं आया हूँ, पहले आप उसे वैकुण्ठ आने की आज्ञा प्रदान करें तब ही मैं आपके साथ चलने को तैयार हो सकता हूँ।"
भगवानः "चल भाई हाथी ! तू भी चल।"
हाथी सूँड ऊँची करके यमराज से कहता हैः
"जय रामजी की ! देखा जिन्दे मनुष्य का कमाल !"

मनुष्य में इतनी सारी क्षमताएँ भरी हैं कि वह स्वर्ग जा सकता है, स्वर्ग का राजा बन सकता है, उससे भी आगे ब्रह्मलोक का भी वासी हो सकता है। और तो क्या ? भगवान का माई-बाप भी बन सकता है। उससे भी परे, भगवान जिसके कारण भगवान हैं !
( एक प्रेरणादायक कथा-- ( मानव में अनंत क्षमताएं है ,उन्हें पहचानो, ब्राह्मण बनो यानि ब्रह्मज्ञानी अथवा ब्रह्मवेत्ता -- अपने शैक्षणिक एवं बौद्धिक स्तर को समृद्ध करो-- आज के युग में धर्म जाती का तात्पर्य त्रुटिपूर्ण है जो मानव की ही बनाई हुए है -- वेदों में जाती के स्थान पर " वर्ण " शब्द का प्रयोग है जिसका तात्पर्य है १. कर्मानुसार आपका "वर्ण" २. वर्ण यानि वरण करना == आध्यात्म एवं परोपकार को वरन करो
विशेष ---मनुष्य जिससे मनुष्य है उस सच्चिदानंद परमात्मा का साक्षात्कार करके यहीं जीते-जी मुक्त हो सकता है।
इतनी सारी क्षमताएँ मनुष्य में छिपी हुई हैं। अतः अभागे विषयों एवं व्यसनों में अपने को गिरने मत दो। सावधान ! समय और शक्ति का उपयोग करके उन्नत हो जाओ और ब्रह्मज्ञानी बने ! आवश्यकता अपने महतत्व ( मन ) में आध्यात्म को उत्पन्न करने की ! वह तब ही उत्पन्न होगा जब आप सत्वगुण युक्त आहार का सेवन करेंगे ! पहले सत्व गुणों की आहार में खोज करे तभी जान पाएंगे की यह त्रिगुणात्मक सृष्टि का रहस्य क्या है ?

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