सहस्त्रनाम पाठ
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वश्यं चतुर्विधं तस्य भवत्येव न संशय:।
राजानो राजपुत्राश्च राजकीयाश्च मन्त्रिण: ॥141॥
तथा राजा, राजपुत्र , मंत्री और राजकीय नौकर-चाकर – ये चारों उसके वश में हो जाते हैं। इसमें तनिक भी संशय नहीं है॥141॥
अश्वत्थमूले जपतां नास्ति वैरिकृतं भयम्।
त्रिकालपठनात्तस्य सिद्धि: स्यात् करसंस्थिता॥142॥
अश्वत्थ वृक्षके नीचे इस स्तोत्रका पाठ करनेवालों को शत्रु से भय नहीं होता। प्रात:काल, मध्याह्न और सायंकाल तीनों समय पाठ करने से सिद्धि उनके हाथोंमें स्थित हो जाती है ॥142॥
ब्राह्मे मुहूर्थे चोत्थात प्रत्यहं यो पठेन्नर:।
ऐहिकामुष्मिकीं चैव लभते ऋद्धिमुत्तमाम्॥143॥
जो मनुष्य प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर इसका पाठ करता है,वह इहलोक और परलोक की उत्तम ऋद्धि (सम्पन्नता ) – को प्राप्त करता है ॥143॥
संग्रामे सन्निविष्टानां वैरिविद्रावणं परम्।
ज्वरापस्मारशमनं गुल्मादीनां निवारणम्॥144॥
यह स्तोत्र युद्ध भूमि में प्रविष्ट वीरोंके लिये विशेष रूप से शत्रुहन्ता है तथा ज्वर , अपस्मार (मूर्च्छा ) – का शमन करनेवाला और गुल्म आदि रोगों का निवारक है ॥144॥
साम्राज्यासुखसम्पत्तिदायकं पठनात्रृणाम्।
स्वर्गं मोक्षं समाप्नोति रामचन्द्रप्रसादत:।।145॥
यह स्तोत्र पाठ साम्राज्य तथा सुख-सम्पत्ति प्रदान करता है तथा इसका पाठ करने वालों को श्रीरामचन्द्र जी की कृपा से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है॥145॥
य इदं पठते नित्यं श्रावयेद्वा समाहित:।
सर्वान् कामानवाप्नोति वायुपुत्रप्रसादत: ॥146॥
जो मनुष्य इन्द्रियोंका सन्यम करके इसे पढ़ता है अथवा किसी को सुनाता है , वह श्रीहनुमान जी की कृपा से सारी अभिलषित वस्तुओं को प्राप्त करता है ॥146॥
इति मन्त्रमहार्णवे पूर्वखण्डे नवतरङ्गे श्रीरामकृतं हनुमत्सहस्त्रनामस्तोत्रं सम्पूर्णम्।
इस प्रकार मन्त्रमहार्णव –ग्रंथ के पूर्वखण्ड के नवम तरंग में श्रीरामचंद्र जी के द्वारा कथित ‘हनुमत्सहस्त्रनामस्तोत्र’ समाप्त हुआ।