सहस्त्रनाम पाठ
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त्वद्ध्याननिरता लोका: किं न पश्यन्ति सादरम्।
तवागमनहेतुश्च ज्ञातो हृत्र मयानघ ॥135॥
निष्पाप श्रीरामजी ! आदरपूर्वक ध्यान में लगे हुए भक्त लोग क्या नहीं देखते ? अर्थात् सब कुछ देख लेते हैं । अतएव आपके यहाँ आनेका हेतु मैं जान गया ॥135।
कर्तव्यं मम किं राम तथा त्वं ब्रूहि राघव ।
इति प्रचोदितो राम: प्रहृष्टात्मा तमब्रवीत्॥136॥
राघवेन्द्र श्रीराम ! मेरे लिये क्या कर्तव्य है, उसे आप मुझसे कहिये । इस प्रकार श्रीहनुमान जी द्वारा प्रेरित किये जानेपर हर्षितचित्त श्रीरामजी बोले - ॥136॥
श्रीराम उवाच
दुर्जय: खलु वैदेहीं गृहीत्वा कोऽपि निर्गत:।
हत्वा तं निर्गुणं वीरमानय त्वं कपीश्वर॥137॥
श्री रामजी बोले – कपीश्वर ! निश्चय ही कोई महान् दुरात्मा विदेहराजपुत्री को लेकर निकला गया है । अत: तुम उस निर्दयी वीर को मारकर सीता को ले आओ ॥137॥
मम दास्यं कुरु सखे भव विश्वासकारक:।
तथा कृते त्वया वीर मम कार्य भविष्यति॥138॥
मित्र ! तुम मेरी दासता स्वीकारा करो और विश्वासपात्र बनो । ऐसा करनेपर वीर ! तुम्हारे द्वारा मेरा कार्य हो जायेगा॥138॥
ओमित्याज्ञां तु शिरसा गृहीत्वा सा कपीश्वर:।
विधेयं विधिवत्तच्च चकार शिरसा स्वयम्॥139॥
कपीश्वर श्री हनुमानजी ने ‘ओम्’ ( अच्छा ) कहकर उस आज्ञा को नम्रतापूर्वक शिरसे धारण किया और फिर स्वयं उस कार्य को विधिवत् सम्पन्न किया॥139॥
श्रीवाल्मीकिरुवाच
इदं नाम्नां सहस्त्रं तु योऽधीते प्रत्यहं नर:।
दु:खौघो नश्यते तस्य सम्पत्तिर्वर्धते चिरम्॥140॥
श्री वाल्मीकिजी बोले- जो मनुष्य इस सहस्त्रनामस्तोत्रका प्रतिदिन पाठ करता है, उसके दु:खों के समूह नष्ट हो जाते हैं और चिरकाल तक धन-सम्पत्ति बढती रहती है ।।140॥